Tuesday, March 29, 2011

मेरी पहली वेलेनटाइन डेट......


सर्दी अभी पूरी गई नहीं थी, बसंत की शांत सुबह थी। श्रीमतीजी चाय रख गई थी, चाय में उनका प्यार कम आदत ज्यादा थी, ऐसा नहीं है कि प्यार नहीं है हमारे बीच, पर प्यार भी शायद एक आदत ही होती है।
खैर, बिस्तर पर बैठे-बैठे, बाएं हाथ में चाय की प्याली थामें, दाएं हाथ से, तह किए हुए अखबार के बीच से शहर के लिए दिया हुआ निकाला मैंने,
असल में सुबह-सो कर उठने पर हल्की बातों से दिन कि शरूआत करना अच्छा लगता है मुझे, इसीलिए बजाए पहले पन्ने की भारी भरकम खबरों के, शहर विशेष वाला पन्ना पहले पढ़ता हूं।
पहले पन्ने पर ही पड़े आधे पेज के विज्ञापन ने मेरी तन्द्रा तोड़ी, लिखा था,
इस वेलेन्टाइन डे पर अपने प्यार को दीजिए एक ऐसा तोहफा जो कभी न खत्म हो...
एक सुनहरी याद...
प्यार के गुलाबी एहसास में डूबी एक यादगार शाम
                                          होटल पिंक
                                          प्रवेश मात्र 450 रू प्रति युगल

वेलेन्टाइन डे आ रहा था, आज फरवरी की दस तारीख थी। ‘‘मम्मी टावल बाहर छूट गई है’’, संजू ने बाथरूम से ही आवाज लगाई। मेरा बेटा संजू, अभी नौंवीं में पढ़ता है। मैंने भी उसी पल कुछ फैसला किया।
‘‘ संजू नहाने के बाद, जरा आना , कुछ काम है ’’, बोल के मैं फिर उस विज्ञापन को निहारने लगा।
गुलाबी-गुलाबी सा अच्छी तरह बनाया गया विज्ञापन था। थोड़ी देर में श्रीमतीजी कप लेने आ गईं जो अभी खाली नहीं हो पाया था और संजू भी आ पंहुचा,
‘‘ हाँ पापा आपने बुलाया’’
‘‘ बेटा जरा मेरी पैन्ट लाना, बोल कर’’ , हाथों में पकड़े कप को मैंने एक ही बार में खाली कर दिया।
 लो बेटा कहीें घूम फिर आना’’ पैन्ट की जेब से एक पांच सौ का नोट निकाल कर मैंने संजू को पकड़ाया।
 माँ, बेटा दोनों अवाक
बेटा तो चला गया पर श्रीमतीजी से रहा नहीं गया,
‘‘ अभी हाल ही तो पाकेट मनी दी थी इसे ’’
‘‘चलो बच्चाा है, कहीं घूम फिर आएगा, आज कल के बच्चों की जरूरतें हम लोगों से ज्यादा होती है’’ , मैंने टाला।
‘‘ बिगाड़ देंगे आप’’, जाते जाते श्रीमतीजी अपना तीर चला गईं।
तुम्हें क्या पता बिगाड़ रहा हूँ या कुछ ठीक करने की कोशिश कर रहा हूँ, मन ही मन बोल पाया मैं।
अखबार पलटते हुए सोचा काश हम अपने जीवन के पिछले पन्नों को भी अखबार की तरह पलट और संपादित कर पाते।
 अभी दसवीं में था मैं, अच्छे स्कूल में पढ़ता था, होनहार तो नहीं पर अच्छे बच्चाों में गिनती होती थी मेरी।
स्कूल शायद मेरी पारिवारिक स्थिति से ज्यादा अच्छा था। था तो मैं एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से, पर पिताजी किसी काम का एहसास नहीं होने देना चाहते थे हमें। नगर पालिका में अवर श्रेणी लिपिक थे पिताजी प रमैं शहर के अच्छे कॉन्वेंट में पढ़ता था।
 हाँ, तो मैं दसवी ं में था, और महीना भी आ गया था फरवरी का, स्कूल, कॉलेजों में रूमानियत लेकर आती है फरवरी, हमारे स्कूल की फिजा भी कुछ गुलाबी-गुलाबी सी हो गई थी।
 आउटडेटेड घोंचू इत्यादि जैसे उपनामें से बचने और सामान्य होने की एक अहम शर्त थी आपके पास एक गर्लफैन्ड का होना सो मेरी भी थी उर्बी।
बहुत अच्छे परिवार से थी और पहला वेलेन्टाइन डे भी नजदीक आ रहा था। पर मैं बजाए ,खुश होने के डरा, सहमा, भागा-भागा फिरता।
वजह भी वाजिब थी, वेलेन्टाइन डे का मतलब था खर्चा, वैसे उर्बी ने मुझे कह ही दिया था, कभी कुछ मांगा नहीं था। पर मेरा भी  तो कुछ फर्ज बनता कोई अच्छा सा तोहफा, किसी अच्छे रेस्टोरेंट में खाना , कम से कम इतना तो होना ही चाहिए। पर इस कम से कम, कि भी  मैं ज्यादा-ज्यादा दस प्रतिशत ही पूर्ति कर सकता था ।
पाँच रुपए मिलते थे मुझे रोज पॉकेट मनी के लिए फरवरी की सात तारीख देखते-देखते आ गई, अब अगर इकठठा भी करता तो बहुत ज्यादा होते तो तीस-पैंतीस रुपए, एक कार्ड खरीद सकता था वो भी मामूली सा।
ऐसा नहीं था कि  घर में हमारे कोई कमी थी पर बंधी-बंधाई तनख्वाह में खर्च चलाना था घर का और पिताजी के आदर्श भी थे, जो चाहिए माँग लो , पैसे नहीं मिलेंगें।
अब उनको भला कैसे बताता, अपनी गर्लफे्रन्ड के साथ वेलेन्टाइन डेट पर जाना है।
उपाय एक ही था, किसी तरह उर्बी से सम्पर्क ही न किया करो जब तक ये वेलेन्टाइन नाम की बला न टल जाए।
जहाँ सभी दोस्त योजनाएँ बनाते, वेलेन्टाइन डे की बात करते मेरा मन दुखी हो जाता अपनी बेबशी पर।
चोरों की तरह उर्बी से नजरें चुराता फिरता। बस यही कोशिश रहती मेरी कि किसी तरह ये बला टल जाए , बाद में उर्बी को मना लूंगा।
उसने भी मेरे बर्ताव में असामान्यता महसूस की क्या हो गया है ‘‘ तुम आज कल अपसेट रहते हो ’’, पूछा था उसने । ‘‘ कुछ तबियत ठीक नहीं रहती’’ कह कर टाल गया था मैं।
इस बार वेलेन्टाइन डे रविवार को पड़ा था, बस मुझे किसी तरह संभालना था क्योंकि शनिवार और रविवार हमारा स्कूल बंद रहता था। जैस -तैसे गुरूवार टल गया , बस अब एक शुक्र वार की बात है सोचकर थोड़ा सुकून हुआ।
शुक्रवार को उसने कई बार बात करने की कोशिश की पर आज मैं किसी भी कीमत पर बच निकलना चाहता था और निकलता गया सारा दिन , आखिरी क्लास थी , बस चन्द मिनटों की बात थी और सब सामान्य हो जाना था, मैंने राहत की सांस ली ।
छुट्टी की घण्टी बजते ही निकल भागना चाहा मैंने द्वन्द से , पर वो मेरे सामने खड़ी थी। शायद ताड़ गई थी कि क्या करने जा रहा था मैं।
‘‘ तबियत ज्यादा खराब रह रही है क्या आज कल, बहुत परेशान-परेशान दिखते हो’’ , बड़ी मासूमियत से कहा उसने।

मुझे काटो तोह खून नहीं ये मुलामियत कुछ ज्यादा ही चुभ रही थी.
‘‘नहीं, ठीक है, कहो’’, मैं जैसे बलि के लिए टायर हो गया.
‘‘यार, मम्मी आ गयी, सुनो तुम रविवार को शाम चार बजे के करीब मनुहार आ जाना मैं तुम्हारा इंतजार करुँगी जरुर आना’’, उसने अपना फरमान सुना दिया.
उसका,‘जरुर आना’ किसी पत्थर सा मेरे सिर से टकराया था.
उस दिन घर जाते वक़्त बस्ता कुछ ज्यादा ही भरी लग रहा था.
रत को अजीब बेचैनी थी, रोया भी खूब, पर खुद को संभाला.
अब जाना तो पड़ेगा रो के क्या फायदा, कुछ सोचो, करो की माँ से पैसे मिल जायें.
रोते-सम्हालते रात कट गयी. मैंने सोच लिया था, माँ से बोलूँगा की दोस्तों के साथ घुमने जाना है, अगर नहीं दिया तो जिद करूँगा.
सुबह से ही मौका तलाशने लगा, माँ से कहने का, जल्दी से जल्दी माँ की हाँ या ना सुन लेना चाहता था. क्योकि अगर माँ हां कह देती तोह मुझे शांति मिल जाती और ना कहती तो, मुझे माँ को मानाने और जिद करने के लिए समय चाहिए था जो मेरे पास सिर्फ एक दिन का ही था.
खाने की मेज पर आखिर मैंने बोल  ही दिया, ‘‘माँ, मुझे कुछ पैसे चहिये दोस्तों के साथ घुमने जाना है कल’’.
‘‘ तुझे पता है न पिताजी की तनख्वाह सब नाप-नाप के खर्च करना पड़ता है, जाना ही था तो पहले बता देता’’, कहके माँ चावल निकलने लगी.
मेरी आँखों में आंसू आ गए. शायद माँ नें भी देखा.
‘‘ कहा जाना है’’, माँ ने पूछा.
‘‘ फन सिटी’’, मैंने झूठ बोला.
‘‘ दो सौ में, हो जायेगा’’, माँ ने पूछा.
‘‘ हाँ ’’, मैंने कहा, दु:ख के आंसू ख़ुशी के आंसुओं में बदल गए सच में बड़ा चंकल होता है किशोर मन.
‘‘चल ले लेना, पर आखिरी बार समझे’’, माँ बोल के पानी निकालने चली गयी.
खोदा पहाड़ निकली चुहिया, सब इतनी आसानी से हो गया की मुझे अजीब लगा. कभी कभी कोई नामुमकिन सा लगने वाला कम अगर आशानी से हो जाये तो एक खालीपन सा महसूस होता है, सफल होने पर भी असफल होने का बहन होने लगता है.
खैर शाम अच्छी कटी मेरी.
पर रात आते-आते मुझे निम्न माध्यम वर्गीय नैतिकता नें घेर लिया.
कितने मुश्किलों से मुझे मेरे माँ बाप पढ़ा लिखा रहे हैं और मैंने झूठ बोला, वो भीवेलेन्टाइन डे के लिए. ये शब्द लगातार मुझे बेचैन कर रहे थे, पर दूसरी तरफ उर्बी, काख्याल था. द्वन्द ने मुझे देर तक जगाये रखा, कब सो गया मैं, पता नहीं.
सुबह उठकर मैंने फैसला किया की कोई नकारात्मक बात नहीं सोचूंगा, सिर्फ अछे से उर्बी के साथ अपनी पहली वेलेन्टाइन डेट मनाऊंगा.
समय कट ही नहीं रहा था, मैं जल्दी से जल्दी तिन बजने का इंतज़ार कर रहा था, ताकि मैं, जा सकूँ, उर्बी से मिलने, बस से आधे घंटे लगते थे मनुहार पहुँचने में.
माँ से पैसे लिए और निकल पड़ा. अपनी गली के मोड़ पर बैठे फुल वाले से, एक गुलाब का फुल लिया और उसका एक कोन बनवा लिया. हालाँकि बहुत शर्म आ रही थी गुलाब खरीदने में. ख़ुशी ज्यादा नहीं टिक पाई, बस की धक्का मुक्की में, निम्न माध्यम वर्गीय नैतिकता नें मेरे चंकल किशोर मन को फिर जकड लिया. सोचा पिताजी भी रोज बस में ऐसे ही जाते होंगे और मैंने माँ से झूठ बोला.
द्वन्द फिर हावी हो गया, सोचा चलो आज तो झूट बोल के हो गया पर अगली बार क्या करूँगा. मासूम मन उस उम्र के एक कठोर फैसले की तरफ बढ़ रहा था, पर उर्बी का ख्याल फैसला कमजोर कर रहा था.
आखिर नैतिकता जीत गयी, मैंने तय कर लिया की उर्बी को बोल दूंगा की अच्छा होगा अब हम अपनी दोस्ती ख़त्म कर लें, और भाग आऊंगा. उसे बड़ी तकलीफ होगी सोच के बहुत बुरा लगा पर और क्या कर ही सकता था मैं.
भारी क़दमों से मनुहार की सीढियाँ चढ़ा. दरवान नें दरवाजा खोला सामने की टेबल पर ही उर्बी बैठी थी.
‘‘ हेल्लो रवि’’, उर्बी की खनकती आवाज़ ने मेरा स्वागत किया.
मैंने भुझे मन से, ‘‘ हाय’’, कहा और बैठ गया.
अभी बैठा ही था की एक सुन्दर सा लडक़ा दोनों हाटों में कोल्ड्रिंक की बोतल लिए हमारी टेबल पर आ कर बैठ गया.
‘‘ रवि ये हैं शशांक, मेरे बचपन का दोस्त और शशांक ये है रवि मेरा क्लास मेट और सबसे अच्छा दोस्त’’, उर्बी नें हम दोनों का परिचय करवाया.
‘‘ रवि शशांक से ही मिलवाने के लिए मैंने तुम्हे बुलाया था’’, उसने मुझे बुलाने का कारन बताया.
‘‘ यार, फिर कभी अच्छे से मिल लेंगे, आज मुझे थोडा काम है’’, थोड़ी औपचारिक बात चित के बाद मैंने कहा और बहार निकल आया.
अब मैं मनुहार की सीढियाँ उतर रहा था, और मेरे मन का सारा भारीपन मेरी आँखों के रास्ते बहार आ रहा था.

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