Sunday, September 7, 2014

सिंघम रिटर्न्स: हवा में गोलियां और जमीं पर सामजिक सरोकार




महेंद्र  गुप्ता

Taken from google
एक्शन फिल्मों की वही पारंपरिक कहानी बताकर राेहित शेट्‌टी काे चलता कर देना इस बार मुश्किल होगा। फिल्म में हवाओं में कार और गोलियां उड़ाने के साथ-साथ उन्होंने अपनी कहानी को मानवीयता का एक धरातल भी दिया है, जिसमें एक शहीद ईमानदार पुलिसकर्मी का गरीब परिवार है, कई ईमानदार राजनेता हैं और वो जनता जो लोकतंत्र से ज्यादा उसे दो-चार हजार रुपए के लिए नीलाम करके अपने पेट पालने को मजबूर है। िफल्म का एक डायलॉग बड़ा असर डालता है कि इस देश की आधे से अधिक आबादी ऐसी है जिसे यह चिंता नहीं कि सरकार पांच साल चलेगी या नहीं, लेकिन यह चिंता है कि उसका घर कैसे चलेगा।

रोहित शेट्‌टी ने इस बार दर्शकों को िथएटर के बाहर भी िफल्म की स्मृतियां ले जाने का मौका दिया है। हालांकि, हो वहीं रहा है जो उनकी कहानी में होता आया है, लेकिन अलग ढंग से। मसलन, हफ्ता वसूलने वाले किसी गुंडे की जगह उन्होंने एक ढोंगी बाबा को दिखाया है, पुलिस को उसकी वर्दी से ज्यादा बिना वर्दी में पॉवरफुल दिखाया। सच भी है। किताबी कानून से ज्यादा आज देश को अपने विवेक के कानून और न्याय की जरूरत है। जो न किसी अपराधी को सालों तक जेल की रोटियां तोड़ने का मौका दे और न ईमानदारी को दीन-हीन और बौना साबित करे। िफल्म में बार-बार पुलिस की बेबसी और व्यवस्था पर चोट करने में िनर्देशक सफल हैं। साथ ही उन्होंने मीडिया को भी लपेटे में ले लिया है, जो समाज के पीछे अच्छे और बुरे दोनों तरह के चरित्र के साथ खड़ा है।
अच्छी बात यह है कि यह िफल्म दर्शकों का फाइटिंग, स्टंट और कारों को राखकर मनोरंजन की रस्म पूरी करती है तो यह सोचने की गुंजाइश भी पैदा करती है कि आखिर आज के ढोंगी धर्मगुरुओं के भक्त कौन हैं? भ्रष्ट नेताओं को किसने चुना? पुलिस अफसरों को रिश्वत किसने दी? और अन्याय के खिलाफ चुप कौन रहा? शायद, हॉल में बैठे वही चेहरे, जिन्हें हर बार उनकी सिनेमाई खुराक में सामाजिक चेतना का चूरन मिला के दिया जाता है, लेकिन वह घर लौटते-लौटते ही बेअसर हो जाता है।
बाबा के वेश में अमोल गुप्ते की एक्टिंग और बीच-बीच में कॉमेडी के हल्के डोज आपके ढाई घंटों को और अधिक मजेदार बना देंगे। अंतत: सिंघम रिटर्न्स को रोहित शेट्‌टी का गुड रिटर्न्स कहा जा सकता है।

0 comments: