Thursday, November 1, 2012

पार्क



आज इस रोगग्रस्त संझा
पार्क के एक कोने
इस दिन भर तपे पत्थर पर बैठकर
सोचता हूँ मैं
कि तुमने अच्छा नहीं किया


सोचता हूँ मैं
कि स्थिति परिवर्तन यही होता है शायद
कि तुम ब्राह्मण हो गए और मैं दलित


तुम्हारे प्रेम ने इतना बदला मुझको
कि अभी-अभी पार्क में आई एक युवती
मुझे कितनी सहज लग रही थी
मेरे यहाँ होने की तरह सहज


सामने एक घांस के गुच्छे को घूरता मैं देर तक
सोचता हूँ 'उत्पादकता के सिद्धांत' पर
और दूसरे ही पल
अपने पैंट पर गिरे

एक तृण को झाड़ते हुए
अपने उपभोग के बारे में

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं !!

ये उसी शहर का एक पार्क है
जिस शहर में
मैं तुमसे पहली बार मिला था

इसी शहर में गुजारी थी
मैंने अपनी पूरी जिंदगी के सामानांतर
मात्र एक शाम

जब पूरा आसमान पीला पड़ गया था
और बारिश की झिर्रियाँ
ज़मीन पर गिरने से पहले हवा में उड़ रही थीं

तब मैं यह मानकर बैठा था
कि तुम्हीं मेरा अंतिम प्रेम होगे
और तुम्हें याद नहीं होगा शायद

तुमने भी आसमान की ओर देखते हुए कहा था
'आई एम थैंकिंग गाड दैट ही मेड यू फॉर मी'

तब ज़रूर तुम्हारा ईश्वर मुझपर हंस रहा होगा
हालांकि मैं ईश्वर को नहीं मानता
पर तुम्हारा ईश्वर साक्षी है
कि कैसे बदल ली तुमने अपनी भाषा
और अब तुमको वही शाम एक 'भावनात्मक त्रुटि' नज़र आती है

तुमने कैसे मेरी ढेर सारी स्थितियों को
मुट्ठी भर चिलबिल की तरह
मसल कर फूंक दिया
और मैं कुछ न कर सका।

कभी-कभी लगता है कि तुम्हारा एक पूर्व नियोजित क्रम था
कभी-कभी ये भी लगता है
कि तुमने मुझे अपना "सेफ्टी वाल्व" समझा

एक बार ये भी लगता है
कि तुम मुझ जैसे ही किसी व्यक्ति से ही प्रेम करना चाहती थीं
और मेरी जात के प्रेमियों का एक हिस्सा
जो दिखता नहीं है
और जो दिखाया भी नहीं जा सकता
उसे तुम पचा नहीं पाए

अक्सर ये भी लगता है कि
कहीं न कहीं तुम्हारे सामने
अस्तित्व का घोर संकट आता रहा
जो पहले कभी नहीं आया था
हालांकि आरम्भ में तो वह सुखद था
पर बाद में तुम घबराने लगे
असल में तुम्हारे अन्दर के विद्रोह ने
मुझसे प्रेम कर किया
और मैं अभागा तुम्हारे विद्रोह का शिकार
उसे तुम्हारा स्वीकार्य, समर्पण समझ बैठा


इसी पार्क में अपने दाहिने तरफ
उस जामुन के पेड़ को देखता हूँ
तो सोचता हूँ कि तुमने अच्छा पाठ पढाया मुझको
कि अगर उस जामुन के पेड़ पर 'ऊपर' चढ़ना हो
तो जिस डाल पे हाथ रक्खा है

उसपे पाँव तो रखना ही होगा
मगर अफ़सोस मैं वो सीख ही नहीं पाया
और अब भी उसी पहली डाल पर बैठा हूँ


कि मैं कुछ कहना भी चाहूँ
तो मेरे एक भी शब्द तुम तक नहीं पहुँच पाते
और तुम कहीं भी थूकते हो
तो एकाध छींटे
मुझपर पड़ ही जातीं हैं

तुमने विकास के कितने अच्छे-अच्छे तर्क गढ़े हैं
और मैं अविकसित, पिछड़ा
"स्माल इज ब्यूटीफुल" वाले तर्क को लिए बैठा हूँ

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं

एक लम्बी सांस लेता हूँ
नथुनों की गर्मी महसूस करता हूँ
उँगलियों के बीच पसीने को पोंछता हूँ
न जाने क्या हथेली में सूंघता हूँ
उंगलीके एक नाख़ून की फेंच बहुत ध्यान से देखता हूँ

अब सोचता हूँ
कि क्या जो कुछ भी तुम्हारे बारे में लिखा मैंने
और सोचा भी
वो तुम भी सोचते होगे
अगर नहीं तो ये सब महज़ आरोप है
सपाट निंदा है
जिसकी अनुभूति मात्र ही
मुझे निर्जन, गहरे, जलहीन कुँए में फेंक देती है
और मेरी आवाज़, शब्द
उस निर्जनता का सौन्दर्य बनकर रह जाती है
जितना ही मैं तुम्हारे बारे मैं सोचता हूँ
उतना निर्वासित होता जाता हूँ
इस बाज़ार से
उतना समझ पाता हूँ
उस मर्दानगी को
छान पाता हूँ खुद को
फिर बटोर लेता हूँ

ताकि मैं बिकाऊ न रह सकूँ
ताकि मेरा कोई मूल्य न हो

बाज़ार के हाथ कितने लम्बे होते हैं।------रितेष मिश्रा

(This is a beautiful poem written by Ritesh Mishra, a journalist by profession but poet at heart....)

1 comments:

Bakait said...

The undercurrent in the poem, depicting the encroachment of market in personal relations...is really chilling...