महेन्द्र गुप्ता
‘फाइंडिंग फैनी’ अपने प्रेम काे खोजने निकले पांच अधूरे और अनसुलझे लोगों की यात्रा है। दर्शकों को इस कहानी का रहस्य इन किरदारों के जीवन में ही तलाशना होता है। इस सफर में फर्डी (नसीरुद्दीन शाह) अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव में अपने 46 साल पुराने प्रेम काे खोजने निकलता है। उसे भरोसा है कि उसे उसकी प्रेमिका फैनी जरूर मिलेगी। इस सफर में उसका साथ देती है एंजी (दीपिका पादुकोण)। दरअसल, एंजी फर्डी के साथ इसलिए है, क्योंकि वह सेवियो (अर्जुन कपूर) को चाहती थी, लेकिन उसने कभी अपने प्रेम का उससे इजहार नहीं किया था। अंतत: उसने किसी और से शादी कर ली, लेकिन शादी के दिन ही एंजी विधवा हो गई।
इस यात्रा में एंजी की सास रोजी (डिंपल कपाड़िया) भी साथ है और उसके प्रेम का मारा एक चित्रकार पेड्रो (पंकज कपूर) भी। इस तरह यह किरदार फर्डी के प्रेम की तलाश में अपने प्रेम को तलाशते हैं, जिसमें वे खुद को अभिमानी, स्वार्थी और अधूरा पाते हैं। फिल्म में हास्य को बड़े स्वभाविक ढंग से पैदा किया गया है। यही बात सबसे अिधक सुकून देने वाली है।
चित्रकार पेड्रो हमेशा से चाहता है कि वह रोजी की पेंटिंग बनाए, लेकिन जब पेंटिंग बनाने का मौका आता है तो उसे पता चलता है कि बाहर से आकर्षक दिखने वाली रोजी अंदर से कितनी खोखली है। वह कहता है कि उसे इस पेंटिंग बनाने में सबसे ज्यादा कठिनाई उसकी आंखें बनाने में हुई, क्योंकि उन आंखों में कुछ है ही नहीं। उजड़ी और बेजान हैं यह। सिर्फ स्वार्थ और झूठा गुरूर है इनमें। दरअसल, रोजी का पति उसे छोड़कर भाग गया था। यह बात सिर्फ फर्डी जानता है। रोजी एक लोभी और सांसारिक चीजों में यकीन करने वाली महिला है। अपने पति के जाने के बाद उसकी उम्मीद बंधती है कि पेड्रो उसे उसका प्रेम देगा, लेकिन वह भी रोजी को नकार देता है। अंतत: पेड्रो के मौत के साथ उसकी यह उम्मीद भी मर जाती है।
इस कहानी में दो खूबसूरत किरदार और हैं एक गोवा का पोकोलिन गांव और दूसरा रोजी की बिल्ली। दोनों का ही इस कहानी में अपना महत्व है। इस फिल्म के मजमून को समझने के लिए थोड़े धैर्य की जरूरत है। बात उतनी सीधी और गंभीर नहीं है, जितनी दर्शकों को लगती है, लेकिन फिर भी यह फिल्म कुछ खास है। यूं ही, अनायास। फिल्म की कोई कहानी नहीं, फिर भी हर किरदार में कहानियां समाई हैं।
अंतत: फर्टी की फैनी कहीं नहीं मिलती, वह रोजी से शादी कर लेता है। उधर, एंजी और सेवियो शादी कर लेते हैं। निर्देशक का कहना है कि प्रेम नहीं, लोग मरते हैं। वाकई प्रेम तो एक अहसास है और अहसास की कोई उम्र नहीं होती। कोई रंग-रूप और आकार नहीं होता। फिल्म का संगीत और कैमरा की स्वभाविक चाल प्रभावी है।
पुनश्च:
निर्देशक ने इस फिल्म को दिग्गज अभिनेताओं के कंधों पर रखकर दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश की है, क्योंकि वह जानता है कि उसके किरदार ही उसकी कहानी के साथ न्याय करेंगे। उसे पता है कि गहरी बातें कहने के लिए भी हल्के आसरे और समर्थ चेहरों की जरूरत होती है।
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